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आ यदि॒षे नृ॒पतिं॒ तेज॒ऽआन॒ट् शुचि॒ रेतो॒ निषि॑क्तं॒ द्यौर॒भीके॑। अ॒ग्निः शर्द्ध॑मनव॒द्यं युवा॑नꣳस्वा॒ध्यं᳖ जनयत्सू॒दय॑च्च ॥११ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। यत्। इ॒षे। नृ॒पति॒मिति॑ नृ॒ऽपति॑म्। तेजः॑। आन॑ट्। शुचि॑। रेतः॑। निषि॑क्तम्। निषि॑क्त॒मिति॒ निऽसि॑क्तम्। द्यौः। अ॒भीके॑ ॥ अ॒ग्निः। शर्द्ध॑म्। अ॒न॒व॒द्यम्। युवा॑नम्। स्वा॒ध्य᳖मिति॑। सुऽआ॒ध्य᳖म्। ज॒न॒य॒त्। सू॒दय॑त्। च॒ ॥११ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:33» मन्त्र:11


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यत्) जब (इषे) वर्षा के लिये (निषिक्तम्) अग्नि में घृतादि के पड़ने से निरन्तर बढ़ा हुआ (शुचि) पवित्र (तेजः) यज्ञ से उठा तेज (नृपतिम्) जैसे राजा का तेज व्याप्त हो वैसे सूर्य को (आ, आनट्) अच्छे प्रकार व्याप्त होता है, तब (अग्निः) सूर्यरूप अग्नि (शर्द्धम्) बलहेतु (अनवद्यम्) निर्दोष (युवानम्) ज्वानी को करनेहारे (स्वाध्यम्) जिनका सब चिन्तन करते (रेतः) ऐसे पराक्रमकारी वृष्टि जल को (द्यौः) आकाश के (अभीके) निकट (जनयत्) उत्पन्न करता (च) और (सूदयत्) वर्षा करता है ॥११ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अग्नि में होम किया द्रव्य तेज के साथ ही सूर्य को प्राप्त होता और सूर्य जलादि को आकर्षण कर वर्षा करके सबकी रक्षा करता है, वैसे राजा प्रजाओं से करों को ले, दुर्भिक्षकाल में फिर दे, श्रेष्ठों को सम्यक् पालन और दुष्टों को सम्यक् ताड़ना देके प्रगल्भता और बल को प्राप्त होता है ॥११ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(आ) (यत्) यदा (इषे) वृष्ट्यै (नृपतिम्) सूर्यं राजानमिव (तेजः) यज्ञोत्थम् (आनट्) समन्तात् व्याप्नोति। आनडिति व्याप्तिकर्मा० ॥ (निघं०२.१८) (शुचि) पवित्रम् (रेतः) वीर्यकरं जलम् (निषिक्तम्) अग्नावाज्यादिप्रक्षेपणेन नितरां सिक्तं विस्तृतम् (द्यौः) आकाशस्य। षष्ठ्यर्थेऽत्र प्रथमा। (अभीके) समीपे (अग्निः) सूर्य्यरूपः (शर्द्धम्) बलहेतुम् (अनवद्यम्) सर्वदोषरहितम् (युवानम्) युवत्वसम्पादकम् (स्वाध्यम्) यः सुष्ठु ध्यायते तम् (जनयत्) जनयति (सूदयत्) क्षरति वर्षयति (च) ॥११ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यदिषे निषिक्तं शुचि तेजो नृपतिमाऽऽनट् तदाग्निः शर्द्धमनवद्यं युवानं स्वाध्यं रेतो द्यौरभीके जनयत् सूदयच्च ॥११ ॥
भावार्थभाषाः - यथाऽग्नौ हुतं द्रव्यं तेजसा सहैव सूर्य्यं प्राप्नोति, सूर्य्यो जलाद्याकृष्य वर्षित्वा सर्वान् पालयति, तथा राजा प्रजाभ्यः करानाकृष्य दुर्भिक्षे पुनर्दत्वा श्रेष्ठान् सम्पाल्य दुष्टान् सन्ताड्य प्रागल्भ्यं बलञ्च प्राप्नोति ॥११ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे अग्नीत टाकलेले द्रव्य वेगाने सूर्याकडे जाते आणि सूर्य मेघाद्वारे जलाच्या रूपाने बरसून सर्वांचे रक्षण करतो तसे राजाने प्रजेकडून कर घेऊन दुर्भिक्ष आल्यास पुन्हा प्रजेला तो परत करावा. श्रेष्ठांचे पालन व दुष्टांचे निर्दालन करावे. म्हणजे प्रगल्भता व सामर्थ्य प्राप्त होते.